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बौद्धिक आतंकवाद एक नया खतरा

सामाजिक मुद्दे
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आजकल शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो आतंकवाद के बारे में न जानता हो। प्रतिदिन होने वाली घटनाओं ने बड़ों के साथ बच्चों को भी चिंता में डाल दिया है। बुद्धिजीवी लोग इसके लिए गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी के साथ सरकार की नीतियों की आलोचना करते मिल जायेंगे। पर शायद आपने कल्पना भी नहीं की होगी कि इसके लिए इनमें कोई भी कारण दोषी नहीं है। वास्तव में आतंकवाद के लिए केवल बौद्धिक ज्ञान ही दोषी है।

gun writer

हम आपको बताते चलें कि आजादी के बाद देश में बहुत सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं। दलितों, पिछड़ों, गरीबों, शोषितों व अल्पसंख्यकों को न्याय प्रदान करने के लिए सैकड़ों कानून बने पर एक धूर्त वर्ग (जिसमें सभी जातियां और धर्म के लोग शामिल हैं) ने इनके मुख्यधारा में आने के सभी रास्ते जबरन बंद ही रखे हैं। आजादी के बाद धीरे-धीरे ही सही पर कई गैर जरूरी काम और कुप्रथाएं समय के साथ समाप्त होती गयीं। अगर हम सरकारी सिस्टम और शहरी क्षेत्र को देखें, तो कुछ उदाहरण को छोड़कर छुआछूत लगभग ख़त्म ही हो चुका है। हालांकि गांव में अभी भी यह सब देखने को मिल जाता है। आरक्षण से लाखों दलितों और पिछड़ों को नीचे से ऊंचे सभी पदों पर सबके साथ काम करने का अवसर भी मिला है। पर आपको ताज्जुब होगा कि कुछ लोग अभी भी जाति संघर्ष के 5 हजार साल पुराने अप्रमाणिक तथ्यों के सहारे लगातार समाज में जहर घोलकर उन बातों को जिन्दा किये हुए हैं, जिनसे जातियों में नफरत पनपती हो।

देश में अगड़ों-पिछड़ों और दलितों के नाम पर पार्टी बनाने का मकसद ही यही था कि किसी तरह हिन्दू समाज के लोगों को अलग-अलग रखकर उनके वोट की राजनीति की जाए और नेता इसमें सफल भी रहे। पर सबसे गन्दी भूमिका उनकी रही, जो समाज में पढ़े-लिखे लोग हैं। प्रत्येक जाति में कई पढ़े लिखे व्यक्ति भी उतने ही धूर्त हैं, जितने अनपढ़ नेता। पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी अपनी बिरादरी में अगुआ की भूमिका में बने रहने के लिए इतिहास के उन तथ्यों का संग्रह करता है, जिससे लोगों की भावनाएं लगातार भड़काई जा सकें। ऐसे लोग ही बौद्धिक आतंकवाद के जनक होते हैं।

आजादी के आंदोलन को धार देने में पढ़े-लिखे लोगों का सर्वाधिक योगदान था। बंद कमरों में छपने वाले समाचार पत्रों और होने वाली गोष्ठियों से निकले विचार एक-दूसरे के माध्यम से प्रचारित होकर आन्दोलन बन जाते रहे और अंततः आजादी का कारण बने। आजादी के बाद देश की बागडोर समर्थ लोगों के हाथ चली गयी और बुद्धजीवी बेरोजगार से हो गए। चूंकि आन्दोलन ख़त्म हो जाने से इनकी सामाजिक पकड़ यकायक कमजोर पड़ने लगी, इसलिए नए मुद्दों की तलाश की जाने लगी, ताकि समाज में किसी न किसी बहाने लोगों के बीच अपने विचारों की धाक बनाये रखी जा सके। इन्हीं बौद्धिक विचारकों के कारण ही धीरे-धीरे क्षेत्रवाद और जातिवाद के विचार लोगों के मन में पुनः भरे जाने लगे। उस समय पढ़े-लिखे लोगों की संख्या कम थी, इसलिए इन विचारों को आगे बढ़ने में काफी समय लगा।

शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार और स्कूलों की स्थापना के साथ ही हर वर्ग में शिक्षित (केवल लिखने-पढ़ने की क्षमता) लोगों की संख्या में इजाफा होने लगा, जिससे बौद्धिक आतंकवादियों की संख्या में भी गुणात्मक इजाफा हुआ। इन्होंने समाज को बांटने के लिए वही तरीका अपनाया, जो आजादी के समय अपनाया गया था। छोटी-छोटी गोष्ठियों के माध्यम से लोगों के मन में ऐसे तथ्य भरे जाने लगे, जो केवल नफरत ही पैदा करते रहे। पिछले एक दशक में सोशल मीडिया के आगाज ने इस आग में घी का काम किया। नफरत भरी पोस्ट को लिखकर एक अभियान के तहत वायरल कराया जाना भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। जातियों, क्षेत्रों, पार्टियों और विचारधाराओं के नाम से बने फेसबुक और व्हाट्सऐप ग्रुप में जिस घटिया स्तर के तर्क और तथ्य लिखे जा रहे हैं, उससे साफ पता चलता है कि कोई तो है, जो इन्हें इस तरह का साहित्य उपलब्ध करा रहा है।

बौद्धिक आतंकवाद, प्रत्यक्ष आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक है। प्रत्यक्ष आतंकवाद में तो केवल जनहानि होती है पर बौद्धिक आतंकवाद से पीढि़या बर्बाद होने का खतरा और जातीय युद्ध का खतरा पैदा हो गया है। ताज्जुब यह भी है कि इस आतंकवाद के सूत्रधार हर वर्ग, हर जाति व हर स्तर पर उपलब्ध हैं और अपनी मजबूत पकड़ बनाये हुए हैं। दिमाग में विचारों के रूप में भरा हुआ जहर अब लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में लगातार सामने आ रहा है। धर्म के आधार पर लड़ाई-झगड़ा, दंगे, मारपीट, हत्या के बाद अब जाति आधारित घटनाएं तेज़ी पकड़ रही हैं। आगामी समय में जातियां, उपजातियों और छोटे-छोटे समूहों में किसी न किसी विचार को आधार बनाकर संघर्ष करती नजर आयेंगी। सार यह भी है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली लोगों को नैतिक मजबूती देने और समाज में एकता कायम करने में पूरी तरह फेल नजर आ रही है।

अगर समय रहते वर्तमान रोजगार आधारित शिक्षा प्रणाली की बजाय मानव मूल्य आधारित शिक्षा को बढ़ावा नहीं दिया गया और समाज में नफरत फ़ैलाने वाले विचारों को सशक्‍कत तर्कों से नहीं रोका गया, तो समाज को खंडित होने से कोई नहीं रोक पायेगा। लोगों को विवादित इतिहास से निकालकर भविष्य के लिए तैयार करने के लिए स्वयं ही आगे आना होगा। उन्हें बताना पड़ेगा कि इतिहास के संघर्षो को आगे बनाये रखने से बेहतर है कि वर्तमान को मिलजुलकर जिया जाए, ताकि भविष्य में इस वर्तमान को आधार बनाकर बौद्धिक आतंकवादी पुनः लोगों को आपस में न लड़ा सकें।

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