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क्या दाल की कीमत का हल होने से सब ठीक होगा

सामाजिक मुद्दे
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अरहर की दाल 200 रुपये किलो तक पहुँच चुकी है जिससे भारत की राजनीति गर्मा गयी है। सम्पूर्ण विपक्ष इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री जी को घेर रहा है और सरकार इस संकट से निपटने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है पर अभी तक कई उपाय करने के बाबजूद भी इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं निकला है।कभी प्याज कभी आलू कभी दालें भारत की राजनीति में उथल पुथल मचाएं रहेंगी।आखिर क्यों ऐसे संकट पैदा होते है और इन संकटो के लिए सरकार पहले से ही कारगर उपाय क्यों नहीं करती है।
       पिछले एक दशक में हमारे देश में खाद्यान्न संकट से निपटने पर कोई विशेष कार्य नहीं हुआ है बढ़ते औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण कृषि क्षेत्र का रकवा प्रतिवर्ष घटता चला रहा है जबकि उसके सापेक्ष जनसँख्या में गुणोत्तर बृद्धि होती जा रही है। ऐसे में जनसँख्या के सापेक्ष खाद्य पदार्थो की आपूर्ति के लिए वर्तमान में उपलब्ध कृषि क्षेत्रफल पर ही ज्यादा उपज उगाने के प्रभावी उपाय करने आवश्यक हो गए हैं। भारत का किसान अभी भी परंपरागत कृषि को ही अपनाये हुए है जिसके कारण जनसँख्या के सापेक्ष अधिक कृषि उपज प्राप्त नहीं हो पा रही है। वहीँ बढ़ती जनसँख्या और बड़े होते परिवारो के कारण विभाजित होते कृषि क्षेत्रफल से किसान अपने परिवार के भरण पोषण के लिए गांव से पलायन कर अन्य व्यवसाय करने पर मजबूर हो रहे हैं।गांव में तो अब कृषि कार्य हेतु मजदूर तक उपलब्ध नहीं है जिससे कुछ समृद्ध किसानों को छोड़कर बाकी लोग अपने भरणपोषण के लिए भी पर्याप्त अनाज तक नहीं उगा पा रहे हैं।
      राज्यों में कृषि उपज के कमजोर रख रखाव होने के कारण भी कीमतों में अप्रत्याशित बृद्धि होती है। राज्यों की सहकारी क्रय केंद्र में अनियोजित प्रबंधन के कारण पर्याप्त लिवाली नहीं होती है और सरकार के पास आकस्मिक स्तिथि से निपटने के लिए अनाज का बफर स्टॉक कम हो जाता है साथ ही लिए गए अनाज के भण्डारण के पुराने तौर तरीके और लचर प्रबंधन के कारण प्रति वर्ष लाखों टन अनाज सड़ जाता है।ऐसे में इस समस्या के लिए कहीँ ना कहीँ सरकार भी दोषी है।
वही कृषि उपज की खरीद में सहकारी समितियों पर विचौलियों के दबाव के चलते इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।
     पिछले एक दशक में किसानों ने दलहनी फसलों के उत्पादन में रूचि लेना कम कर दिया है जबकि चावल और गेहू पर्याप्त मात्रा में पैदा हो रहा है।वही कच्ची फसल जैसे लहसुन प्याज आलू सब्जियां इत्यादि में मुनाफा के चलते इस तरफ किसानों का रुझान बढ़ रहा है।घटते वन क्षेत्र के कारण नीलगाय और अन्य जानवरों द्वारा दलहनी फसलों में नुकसान किये जाने के कारण अब ये फसलें खेतों में कम ही दिखाई देतीं हैं।इस कारण अब गांव के लोग भी दालें बाजार से खरीदते दिखाई पड़ते हैं जबकि एक दशक पहले तक किसान अपने उपयोग लायक दलहनी फसल स्वयं उगा लेते थे।
   सरकार की मंडी नीति भी मंहगाई बढ़ाने का प्रमुख कारण है।किसान द्वारा अपनी उपज को सीधे ग्राहक को ना वेंच पाने के कारण ये व्यापारी को अपनी उपज उसके द्वारा निर्धारित दर पर बेंचने को मजबूर है और वही व्यापारी इसका भण्डारण कर मनचाहे दामों पर इसे बेंचता है। खुली मंडी की व्यवस्था ना होने से जमाखोरों की चांदी हो जाती है।इन जमाखोरों की सत्ता से नजदीकी होने के कारण सरकारी अफसर इन पर कार्यवाही करने से कतराते हैं और ये अफसर भी अपने हिस्से का लाभ रिश्वत के रूप में लेकर अपना मुँह बंद कर लेते हैं।वायदा कारोबार भी इस महँगाई को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं ।
   कुल मिलाकर यदि भारत सरकार ने किसानों को कृषि कार्य से जोड़े रखने, उन्हें समुचित सुविधायें उपलब्ध करवाने ,उनकी उपज का उचित मूल्य दिलवाने ,क्रय की गयी उपज के आधुनिक भण्डारण की व्यवस्था करनें ,खुली मंडी की व्यवस्था करनें और जमाखोरों और विचौलियों से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजनाओं पर शीघ्र कार्य ना किया तो भारत में एक बड़ा खाद्यान्न संकट खड़ा होने बाला है।

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