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आरक्षण की राजनीति

सामाजिक मुद्दे
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हिंदुस्तान एक बार फिर आरक्षण की आग में जलने को तैयार है।सरकार में वोट बैंक की हिस्सेदारी के बराबर सरकारी नौकरी में प्रतिनिधित्व की मांग लंबे समय से देश के अलग अलग राज्यों में होती रही है। वर्तमान समय में गैर आरक्षित प्रतिभा का दमन समाज में जातिगत घृणा को बढ़ावा देता दिख रहा है वोट की चोट के कारण पिछले 40 वर्षों में कोई भी सरकार इसमें हस्तक्षेप करने का साहस नहीं जुटा सकी और भविष्य में भी इसकी सम्भावना कम ही नजर आती है। पिछले कुछ माह में सोशल मीडिया पर गैर आरक्षित वर्ग की सक्रियता एक नए वैचारिक युद्ध के आगाज का संकेत दे रही है और भविष्य में इस लड़ाई के सड़क पर उतरने की प्रबल सम्भावना नजर आती है।गुर्जर समुदाय के बाद पटेल समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग से अगड़ी जातियां भी भीड़ तंत्र की रणनीति को भविष्य में अपनाने पर विचार कर सकती हैं और आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग में अपना सक्रिय योगदान दे सकती हैं।
आरक्षण की व्यवस्था एक न्यायसंगत व्यवस्था है जिसमे गरीब और वंचित वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व और आर्थिक समानता के लिए कानून उन्हें सुबिधा उपलब्ध करा रहा है पर आजादी के 68 वर्ष के समय और इस सुबिधा की वैशाखी के बाद भी ये वर्ग अभी तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका है जिसकी वजह से केवल 10 वर्ष के लिए लागु किया गया आरक्षण हर बार आगे बड़ा दिया जाता है और हर चुनाव में इसमें नयी जातियों को शामिल करने की माँग जोर पकड़ने लगती है।आखिर कौन से ऐसे कारण रहे जिस वजह से इतने वर्ष बाद भी ये वर्ग जहाँ थे वही रह गए इस बात पर चिंतन करना किसी भी सरकार ने मुनासिव नहीं समझा,परंतु राजनैतिक दलों ने पिछले 4 दशकों से बंचित वर्ग को आरक्षण बढ़ाने /दिलाने के नाम पर जमकर वोट बटोरे हैं।सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों के वाबजूद कई राज्यों ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत का खुला उलंघन किया है।
अन्य सरकारी योजनाओं की तरह आरक्षण भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है।आरक्षण की सम्पूर्ण सुबिधा का लाभ केवल उन व्यक्तियों को मिला जो अपने वर्ग और समुदाय में पूर्व से ही समृद्ध थे। इन्ही कुछ प्रतिशत लोगों के बच्चे पढ़ाई पूरी कर सरकारी नौकरी के लिए आवश्यक न्यूनतम अहर्ता प्राप्त कर सके ,शेष लोग तो अपने जीवन यापन की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी करने में ही जीवन के अंतिम चरण में पहुँच गए। वर्तमान में आरक्षण का लाभ प्राप्त लोग पर्याप्त समृद्ध होने के वाबजूद अपने वर्ग के ही अन्य लोगों के लिए आरक्षण छोड़ने को तैयार नहीं हैं।समस्या यह भी है कि सरकार आर्थिक और सामाजिक रूप से बंचित और पिछड़े वर्ग के लिए आवश्यक रोजगार सृजन में असफल रही है जिसके कारण आरक्षण के बाबजूद इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना अभी भी चुनौती बनी हुयी है।सरकार द्वारा सृजित चंद पदों पर किसी भी समाज के कुछ प्रतिशत लोग ही चयनित हो पाते हैं शेष के लिए सरकार कोई चिंता नहीं करती।
समाज में आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बनने के लिए शिक्षा अत्यंत आवश्यक है।जिस वर्ग को आरक्षण और रोजगार की सर्वाधिक आवश्यकता है उनके बच्चे बमुश्किल ही गाँव के सरकारी विद्यालय से कक्षा आठ की परीक्षा ही पास कर पाते हैं उसके बाद की पढ़ाई उनके लिए पारवारिक समस्याओं के कारण लगभग नामुमकिन होती है।आज के परिवेश में सरकारी नौकरी की कमी के चलते अधिकांश रोजगार निजी क्षेत्र में है पर वहां भी मजदूर वर्ग की योग्यता इंटरमीडिएट हो गयी है ऐसे में बंचित और पिछड़ा वर्ग फैक्ट्री में मजदूर भी नहीं बन पा रहा है।कुल मिलाकर बंचित वर्ग के लिए जीवन यापन हेतु सारे विकल्प बंद से नजर आते हैं।और जब तक पिछड़ा और बंचित वर्ग देश की अर्थव्यवस्था में भागीदार नहीं बनेगा तब तक ना तो देश की तरक्की होगी और ना तो इस समुदाय की।
प्रश्न गत बात यह भी है कि पिछले15 साल से जिस बच्चे को निशुल्क शिक्षा उपलब्ध करायी गयी और सभी सुबिधाओं को दिया गया उसके बाबजूद भी यदि वह किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में पास होने की योग्यता ना रखता हो तो उसे सरकारी सेवा में लेने का क्या औचित्य है।शायद सरकारी सेवा में आरक्षित वर्ग के चयन में न्यूनतम का मानक गैर आरक्षित वर्ग के अंदर नफरत पैदा कर रहा है क्योंकि एक ही विद्यालय से पढ़े छात्रों में सर्वोत्तम छात्र का चयन प्रक्रिया से बाहर होना और कमजोर छात्र का चयन होना योग्य प्रतिभाओं का सीधा हनन है।और ये प्रतिभाशाली छात्र ही विदेशोंइस प्रक्रिया के कारण ही समाज में इन दोनों वर्गों के बीच नफरत लगातार बढ़ती जा रही है।अयोग्य या कम प्रतिभा के व्यक्ति के सेवा में चयन से सरकारी तंत्र की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है और कार्य के निष्पादन में इसका असर साफ़ देखा जा सकता है। निजी क्षेत्र में कार्य की गुणवत्ता को सबसे प्रमुख माना जाता है जिसके कारण ये प्रतिभा चयन में उच्च मानक का प्रयोग करते हैं और कम योग्य व्यक्ति को संस्थान से बाहर कर देते हैं। निजी क्षेत्र की इस व्यवस्था के कारण ही निजी क्षेत्र सरकारी तंत्र से वेहतर आउट पुट देते है।
कुल मिलाकर ये व्यवस्था जिस उद्देश्य को लेकर बनायीं गयी थी उस उद्देश्य की पूर्ति करती नजर नहीं आती है अपितु वोट बैंक की राजनीति का एक साधन जरूर बन गयी है इस व्यवस्था पर प्रश्न उठाने मात्र से सरकारें गिर जाती हैं।आरक्षण व्यवस्था का सर्वाधिक लाभ राजनैतिक दलों और आरक्षित जाति के समृद्ध लोगों ने ही लिया है और भविष्य में भी लेते रहेगें।

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